देर तक बैठे हुए, दोनों ने बारिश देखी
वो दिखाती थी मुझे बिजली के तारों पे लटकती हुई बूंदें
जो ताकुब में थी दूसरे के
और एक-दूसरे को छूटे ही तारों से टपक जाती थी
मुझको ये फ़िक्र के बिजली का करेंट
छू गया नंगी किसी तार से तो
आग के लग जाने का भयास होगा.
उसने कागज़ कि कई कश्तियाँ पानी में उतारी
और ये कह के बहा डी के.. समंदर में मिलेंगे
मुझको ये फ़िक्र के इस बार भी सैलाब का पानी
कुद के उतरेगा कोह्सहर से जब
तोड़ के ले जाएगा ये कच्चे किनारे
ओक में भरके वो बरसात का पानी
अधभरी झीलों को तरसाती रही
वो बहुत छोटी थी, कमसिन थी
वोह मासूम बहुत थी
आबशारों के तरन्नुम पे
कदम रखती थी
और गूंजती थी
और मैं उम्र के इफ्कार में घूम
तजुर्बे-हमराह लिए
साथ ही साथ मैं बहता हुआ,
चलता हुआ, बहता गया"